शरदोत्सव परिचय और महत्व
अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा शरद पूर्णिमा कहलाती है। शरद पूर्णिमा की रात्रि में चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से पूर्ण होता है। शरद पूर्णिमा की रात्रि में चंद्रमा की चांदनी में अमृत का निवास रहता है, इसीलिए उसकी किरणों से अमृत्व को और आरोग्य की प्राप्ति होती है।
शरदोत्सव परिचय और महत्व |
कालनिर्णय |
शरदोत्सव पूजन विधि |
व्रत का वैज्ञानिक दृष्टिकोण |
क्यों सेवन की जाती है शरदपूर्णिमा को दूध के खीर? |
क्या है रासोत्सव? |
शरदोत्सव पर कैसे करें विशेष पूजा? |
शरद पूर्णिमा की रात को क्या करें और क्या न करें ? |
कालनिर्णय
- शरद पूर्णिमा रात्रि का उत्सव है, अतः जिस दिन पूर्ण चंद्र हो अर्थात संपूर्ण रात्रि में पूर्णिमा हो वह दिन लेना चाहिए। अगर संपूर्ण पूर्णिमा ना मिले तो अधिकांश पूर्णिमा जिस दिन हो वह दिन लेना चाहिए।
- इस व्रत में प्रदोष और निशीथ दोनों में होने वाली पूर्णिमा ली जाती है। यदि पहले निशीथ व्यापिनी और दूसरे दिन प्रदोष व्यापिनी नहीं हो तो पहले दिन का व्रत करना चाहिए।
- यदि पूर्णिमा दोनों दिन बराबर हो या पहले दिन कम हो, तो दूसरे दिन यह उत्सव करना चाहिए।
- इस दिन ‘कोजागर व्रत’ पूजा भी मनाया जाता है, इसे ‘कौमुदी व्रत’ भी कहते हैं। जिन्हें कोजागर व्रत करना हो, उन्हें अर्धरात्रि व्यापिनी पूर्णिमा लेनी चाहिए।
- इस बार शरद पूर्णिमा का पर्व 19 और 20 अक्टूबर को मनाया जाएगा। पूर्णिमा तिथि अक्टूबर 19, 2021 को 07:03 मिनट शाम से आरम्भ होकर अक्टूबर 20, 2021 को रात 08:26 मिनट पर समाप्त होगी। पूर्णिमा की पूजा, व्रत और स्नान मंगलवार यानी 19 अक्टूबर को ही होगा।
- चन्द्रोदय 05:40 संध्या को, उदयकाल के अनुसार 20 अक्टूबर को पूरे दिन है। किंतु पूरी रात नहीं है, व्रत और पूजन दोनों दिन किया जा सकता है। अधिकांश लोग 20 अक्टूबर को ही शरद पूर्णिमा मनाई मना रहे हैं।
शरदोत्सव पूजन विधि
- यह दिन भगवान श्री कृष्ण के रास उत्सव का दिन है, इसीलिए सभी मंदिरों में विशेषकर विष्णु मंदिरों यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है।
- इस दिन विशेष सेवा पूजा के अतिरिक्त भगवान को सायंकाल में खीर अथवा दूध का भोग लगाया जाता है।
- पूर्णचंद्र (full moon) की चांदनी में भगवान को विराजमान करके दर्शन करने की भी विधि है।
- शरदोत्सव पर भगवान श्री कृष्ण का श्रृंगार श्वेत वस्त्रों और मोतियों से किया जाता है।
- कोजागर व्रत करने वाले भक्तों को इस दिन माता लक्ष्मी तथा इंद्र की पूजा करनी चाहिए और रात्रि जागरण अवश्य करना चाहिए।
- शरदोत्सव को प्रातः काल विधिपूर्वक स्नान करके उपवास रखे और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें। ताँबे या मिट्टी के कलश पर स्वर्णमयी माता लक्ष्मी जी की प्रतिमा को स्थापित करें।
- माता लक्ष्मी की विधिवत पूजा करें, फिर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर मिट्टी के घी से भरे हुए 101 दीपक जलाए।
- इसके बाद दूध और मिश्री की खीर बनाए और उसे चन्द्रमा की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर बीत जाए, तब लक्ष्मीजी को सारी खीर का प्रसाद अर्पण करें।
- तत्पश्चात इस प्रसाद रूपी खीर को परिजनों के साथ ग्रहण करें और भजन-कीर्तन, मंगल गीत गाकर रात्रि जागरण करें।
- इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं। लक्ष्मी जी ‘को-जागृतः’ पूछती हैं अर्थात् कौन जाग रहा है?
- जो भक्त जागकर देवी लक्ष्मी की पूजा में लगे होते हैं, उन्हें मां लक्ष्मी धन, समृद्धि, वैभव का आशीर्वाद देती है।
- इसे ‘कोजागर व्रत’ या ‘कौमुदी व्रत’ कहते हैं, यह लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला व्रत है। इससे प्रसन्न होकर माँ लक्ष्मी भक्त को इस लोक समृद्धि देती हैं और परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।
व्रत का वैज्ञानिक दृष्टिकोण
- ‘रासोत्सव का यह दिन जगत पालनकर्ता भगवान श्री कृष्ण ने जगत के कल्याण हेतु निश्चित किया है।
- चंद्रमा की अमृतवर्षा करने वाली चांदनी शरद ऋतु में आनंददायक होती है, ऐसी चांदनी अन्य किसी ऋतु में नहीं होती है। इसीलिए कहते हैं इस दिन चंद्रमा की किरणों से अमृत बरसती है।
- जिसने इस ऋतु की पूर्णचंद्र की चांदनी का रसपान किया उन्हें इसका अनुभव प्राप्त है, किंतु जिसने इस आनंद का अनुभव नहीं किया उसने जीवन में कुछ भी नहीं किया।
- इस दिन चांदनी में बैठकर श्री हरि विष्णु के चरण प्रसाद (खीर) का सेवन आनंददायक और अमृत सेवन के समान होता है।
- चरकसंहिता के अनुसार शरद ऋतु में पित्त प्रकोप होता है। वर्षा ऋतु में हमारे हमारे अंग वर्षा और शीत की अभ्यस्त हो जाते हैं। जब सहसा शरद काल के तीव्र सूर्य की किरणों से संतप्त होते हैं, तो संचित पित्त प्रायः शरद ऋतु में प्रकुपित जाता है।
- इसीलिये पित्त और अन्य विकार के शमन के लिए चंद्रमा की चांदनी का सेवन जरूरी है, क्योंकि चांदनी की शीतलता पित्त निवारक होती है।
- कहते हैं शरदोत्सव की चांदनी शीतल (cool), कामानन्द देनेवाली, प्यास, दाह और पित्त की निवारक होती है।
- चरकसंहिता के अनुसार:
शारदानि च माल्यानि वासांसि विमलानि च।
शरत्काले प्रशस्यनंते प्रदोषे चेन्दुरश्मयः।।
अर्थात शरद ऋतु में होने वाले फूलों की मालाएं, साफ वस्त्र और सायंकाल के समय की चंद्रमा की किरणें प्रशस्त हैं।
क्यों सेवन की जाती है शरदपूर्णिमा को दूध के खीर?
दूध स्वास्थ्यकर, मीठा, चिकना, वात-पित्त नाशक, तत्काल वीर्य उत्पन्न करने वाला, जीवन दायक, शरीर और बुद्धि का विकास करने वाला, बल देने वाला, आयु बढ़ाने वाला, टूटे अंगों को जोड़ने वाला और इंद्रियों का बल बढ़ाने वाला होता है।
मानसिक रोग, क्षयरोग, बुखार, कमजोरी, संग्रहणी, हृदय रोगों, अतिसार, थकावट, घबराहट तथा गर्भपात आदि अन्य अनेक रोगों में लाभकारी होता है। दूध का प्रयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से अत महत्वपूर्ण है।
दूध के सभी गुण खीर में भी होते हैं अंतर इतना ही मात्र है कि खीर दूध की अपेक्षा भारी होता है। शरद ऋतु के पूर्णमासी की चंद्रमा की अमृतमय किरणों से पवित्र खीर या दूध रोग-पित्त नाशक होता है और बहुत ही गुणकारी होता है। इसलिए इस आरोग्य उत्सव को हर्षोउल्लास से मनाना चाहिए।
क्या है रासोत्सव?
रास एक प्रकार की नृत्य है, जिसका गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य है। भगवान श्री कृष्ण ने शरद पूर्णिमा के दिन महारास किया था, इसीलिए इसे रासोत्सव कहते हैं।
श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध में रासोत्सव का पांच अध्यायों में विस्तार से वर्णन मिलता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार
जब श्री हरि ब्रज में निवास करते थे, शरद ऋतु का आगमन हुआ। शीतल पूर्ण चंद्रमा को देख भगवान श्री कृष्ण बांसुरी की मधुर तान छेड़ दिए। उस मनमोहक वेणु नाद को सुन गोपियाँ सुध-बुध भूल वृंदावन दौड़ी श्री कृष्ण के पास आ गई। रास आत्मा और परमात्मा के साक्षात्कार और प्रेम का उत्सव है। भक्त और भगवान के प्रेम और भक्ति के ऐसे अनुपम पर्व का समस्त सृष्टि में अन्यत्र कोई उदाहरण नहीं है।
शरदोत्सव पर कैसे करें विशेष पूजा?
- इस दिन प्रातःकाल अपने आराध्य देव अर्थात इष्ट देव को सुंदर वस्त्र आभूषण से सुशोभित करके उनका यथा विधि षोडशोपचार पूजन करना चाहिए।
- अर्धरात्रि के समय गाय के दूध से बनी खीर से भगवान को भोग लगाना चाहिए।
- खीर से भरे बर्तन को रात में चंद्रमा की चांदनी में रखना चाहिए। इस दिन रात्रि के समय चंद्रमा की किरणों के द्वारा अमृत गिरता है।
- पूर्ण चंद्रमा के मध्य आकाश मे स्थित होने पर उसका पूजन कर अर्ध्य प्रदान करना चाहिए।
- इस दिन कांस्य पात्र में घी भरकर जरूरत मंद को दान करने से मनुष्य ओजस्वी होता है।
- दोपहर में हाथियों नीराजन करने का भी विधान है।
- भगवान श्री कृष्ण ने शरदपूर्णिमा को ही रासलीला की थी। इसलिए ब्रज में इस पर्व को विशेष उल्लास और उत्साह से मनाया जाता है। इसे ‘रास- उत्सव’ या ‘कौमुदी महोत्सव’ भी कहते हैं।
शरद पूर्णिमा की रात को क्या करें और क्या न करें ?
- दशहरे से शरद पूर्णिमा तक चन्द्रमा की चाँदनी में विशेष स्वास्थ्यवर्धक अमृतमयी किरणें होती हैं। इस काल में चन्द्रमा की चाँदनी में बैठे चंद्रमा की शीतलता का पान करें और स्वास्थ्य लाभ उठाएं, इससे वर्षभर मनुष्य स्वस्थ और प्रसन्न रहता है।
- अश्विनी कुमार देवताओं के वैद्य हैं। चन्द्रमा की चाँदनी में खीर रखकर और भगवान को भोग लगाकर देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमारों से प्रार्थना करें कि ‘हमारी शरीर और इन्द्रियों का बल-ओज बढ़ायें और हमें आरोग्य प्रदान करें’। तत्पश्चात खीर का प्रसाद ग्रहण करें ।
- आंखों की रौशनी के लिए दशहरे से शरद पूर्णिमा तक प्रतिदिन रात्रि में 10 से 15 मिनट तक चन्द्रमा के ऊपर त्राटक करें। यानि एकटक या टकटकी लगाकर चंद्रमा का सौंदर्य पान करें। नेत्रज्योति के लिए ऐसा करना औषधि सदृश होता है।
- चन्द्रमा की चाँदनी गर्भवती महिला की नाभि पर पड़े तो गर्भ पुष्ट होता है।
- शरदोत्सव की रात्रि नारियल के पानी को पीकर पासों के खेल खेलने का भी प्रावधान है।
- इस दिन उपवास, व्रत तथा सत्संग करने से स्वस्थ काया, मन प्रसन्न और बुद्धि तीक्ष्ण होती हैं।
- इस काल में अगर काम-विकार भोगने में लगे व्यक्ति रोगी और दुःख का भागी होता है और इससे उत्पन्न संतान विकलांग या गंभीर बीमारी से ग्रस्त होता है।
शरद पूर्णिमा की अमृतमय रात्रि को सभी के जीवन में सुख, स्वास्थ्य, शांति, ऐश्वर्य और धन का आगमन हो ऐसी मंगल कामना के साथ।
प्रज्ञा सिंह
जय हिंद