उपवास क्यों करते हैं? उपवास का महत्व
भारत त्योहारों और उत्सवों का देश है। उत्सव के अवसर पर व्रत करने की प्रथा भी प्रचलित है। अक्सर लोग पूछा करते हैं- “ यदि त्योहार समाज को संगठित करने और खुशीयां मनाने के लिए होते हैं, तो उसमें भूखे रहने की क्या औचित्य है?” उस दिन तो और दिनों की अपेक्षा अधिक सरस, स्वादिष्ट व्यंजन और पकवान खाना चाहिए। ऐसा मानने वाले लोग शायद यह सोचते हैं व्रत तो दुःख या शोक के समय ही करना चाहिए। जबकि भारतीय संस्कृति का दृष्टिकोण दूसरा है।
व्रत उपवास का लक्ष्य साधना और संयम है, व्रत का उद्देश्य समारोह मनाना नहीं होता। बल्कि हमारे हृदय पर उस लक्ष्य और साधना का गुण अंकित करना होता है। स्नानादि से शारीरिक पवित्रता होती है, मौन से मानसिक शांति का बात का वातावरण बनता है। उसी तरह उपवास से अंतर्मन और शरीर शुद्ध होती है। विचारों में सात्विकता का विकास होता है।
गरिष्ठ भोजन शरीर में आलस्य और विकार बढ़ता है। काम ना करने इच्छा होती है, इस दशा से परे, लक्ष्य की ओर बढ़ा जाए यही उपवास का मुख्य उद्देश्य होता है।
उपवास क्यों करते हैं? उपवास का महत्व |
अजा एकादशी की कथा |
अजा एकादशी पूजन विधि और महत्व |
एकादशी व्रती के लिए अनुकरणीय बातेंः |
मनस्वी लगन, एकाग्रता और भक्ति भाव वाले होते हैं, वे अपनी उपवास साधना का फल भी पा लेते हैं। जिस तरह ब्रह्मचर्य का पालन केवल वीर्यं रक्षा नहीं होती। ब्रह्मचर्य का मुख्य लक्ष्य संयम, वेदाध्ययन, ज्ञान का अर्जन और ईश्वर में तन्मयता होती है। उसी तरह उपवास का अर्थ – आराध्य (ईश्वर) का सानिध्य या लक्ष्य की तन्मयता होता है, इस तथ्य को प्रकट करते हुए ब्रह्मांड पुराण में अजा एकादशी की कथा वर्णन किया गया है।
अजा एकादशी की कथा
“ त्रेता युग में राजा हरिश्चंद्र नामक एक महान सत्यवादी राजा थे। उन्होंने अपने जीवन में सत्यनिष्ठ रहने का संकल्प लिया था। यहां तक की स्वप्न अवस्था में भी अपने किए गए वचनों का पालन करने प्रतिज्ञा राजा हरिश्चंद्र ने कर रखी थी।
राजा हरिश्चंद्र ने सपने में देखा कि उन्होंने अपना सारा राज्य दान कर दिया है। उसके दूसरे दिन महर्षि विश्वामित्र राजा हरिश्चंद्र के दरबार में आए। राजा हरिश्चंद्र ने स्वप्न में जिस व्यक्ति देखा था उसकी स्वामी विश्वामित्र से मिलती हुई थी। इसीलिए उन्होंने अपना राज्य स्वामी विश्वामित्र को सौंप दिया। हरिश्चंद्र अपनी पत्नी तारामती और पुत्र रोहिताश्व के साथ राज-पाट त्याग दिया चल पड़े। जब हरिश्चंद्र जाने को हुए, तो चलते समय विश्वामित्र ने पांच सौ स्वर्ण मुद्राए राजा हरिश्चंद्र से और मांगी। राजा हरिश्चंद्र ने उन्हें राज्य कोश से लेने की सलाह दी।
इस पर विश्वामित्र ने कहा- “राजन जो राज्य आप मुझे दान कर चुके हैं, उसकी किसी वस्तु पर अब आपका अधिकार नहीं है। हरिश्चंद्र ने अपनी भूल को स्वीकार किया और 500 स्वर्ण मुद्रा चुकाने का वचन दिया।“
मुद्रा संग्रह करने के लिए राजा हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी-पुत्र और स्वयं को बेच दिया और विश्वामित्र को दिये वचन को निभाया। स्वयं को हरिश्चंद्र ने श्मशान के स्वामी एक चांडाल को बेचा था। मृतकों के दाह संस्कार उसके मालिक की आजीविका थी,राजा हरिश्चंद्र निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य का निर्वाह करने लगे।
यह राजा हरिश्चंद्र के धैर्य, संयम, सत्य निष्ठता की अति कठोर परीक्षा थी। जिसका सामना चट्टान की तरह मजबूत दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ कर रहे थे।
एक दिन एकादशी व्रत था। हरिश्चंद्र अर्द्ध रात्रि में श्मशान का पहरा दे रहे थे। उन्होंने देखा एक दीन-हीन स्त्री अपने पुत्र का शव लेकर अंतिम संस्कार के लिए आयी है। उस महिला के पास अपने पुत्र का शव ढंकने को कफन का वस्त्र तक नहीं था, उस निर्धन महिला ने अपने साड़ी को फाड़कर अपने पुत्र के शव को ढ़ंक रखा था। स्त्री की दीनता जानते हुए भी, अपने स्वामी के आज्ञानुसार कर्तव्य पालन करते हुए, हरिश्चंद्र ने उस स्त्री से श्मशान-कर मांगा । पुत्र शोक में संतप्त रोती-बिलखती उस अबला नारी ने अपनी निर्धनता की दुहाई दे कर अदा करने की असमर्थता व्यक्त किया।
भाद्रमास की उस रात्रि घनघोर बारिश हो रही थी। ज्यों ही बिजली चमकी, राजा हरिश्चंद्र ने बिजली की चमक की रोशनी मे उस स्त्री को देखा। हरिश्चंद्र का रोम सिहर उठा, वह स्त्री उनकी पत्नी तारामती थी और मृतक बालक उनका एकलौता पुत्र रोहिताश्व, जिसका सांप काटने से असमय मृत्यु हो गयी थी। पत्नी तथा पुत्र की ऐसी दुर्दशा को देखकर राजा हरिश्चंद्र का हृदय दुःख से चीत्कार उठा। परंतु फिर भी कर्तव्यनिष्ठ हरिश्चंद्र ने तारामती को शव के अंतिम संस्कार की आज्ञा नहीं दी।
उस दिन एकादशी थी और हरिश्चंद्र ने उपवास रखा था।अपने परिवार की यह दुर्दशा देखकर उनकी आँखें अश्रुधारा बहने लगी। दुःखी हृदय से वो बोले- “हे ईश्वर! अब और कैसे दिन देखने को लिखे हैं?”
परीक्षा की इस कठोर घड़ी में भी हरिश्चंद्र पथ से डिगे नहीं। दुःखी भारी मन से उन्होंने तारामती से कहा – “देवी! जिस सत्य की रक्षा के लिए हमलोगों ने राजभवन का त्याग किया, स्वयं को बेचा, उस सत्य के मार्ग से मैं इस कष्ट की घड़ी में कर्तव्यच्युत नहीं हो सकता। ‘कर’ के बिना मैं तुम्हें पुत्र के अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दे सकता।”
रानी तारामती ने भी धैर्य बनाए रखा। उनकी पत्नी तारामती अपने शरीर पर लिपटी हुई आधी साड़ी में से आधी फाड़कर ‘कर’ के रूप में देने के लिए हरिश्चन्द्र की ओर बढ़ाई। जैसे ही तारामती ने साड़ी फाड़ा, उसी क्षण भगवान प्रकट हुए और बोले-
“हरिश्चन्द्र! तुम जैसा सत्यनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ, धर्मपरायण, दानी संभवतः तीनों लोक में नहीं है। तुमने मानव कल्याण हेतु सत्यनिष्ठ, सदाचारी जीवन में धारण कर उच्च आदर्श स्थापित करके अपनी महानता का परिचय दिया है। तुम अपनी सत्य और कर्त्तव्यनिष्ठा के कारण इतिहास में सदैव अमर रहोगे।”
राजा हरिश्चन्द्र ने भगवान को प्रणाम करके कहा- ” हे प्रभु! अगर आप में मेरे कर्त्तव्यनिष्ठा और धर्मपरायणता से प्रसन्न हैं तो इस अबला स्त्री के पुत्र को जीवन दान दीजिए।” और फिर देखते ही देखते ईश्वर की कृपा से रोहिताश्व जीवित हो उठा। भगवान के आदेश से विश्वामित्र ने भी उनका सारा राज्य वापस लौटा दिया।”
अजा एकादशी पूजन विधि और महत्व
- अजा एकादशी के दिन प्रात: स्नानादि से निवृति के बाद स्वच्छ धारण करें। पूजा मंदिर को भी साफ करें और जल, फूल और अक्षत् लेकर अजा एकादशी व्रत रखने और भगवान श्री हरिविष्णु की पूजा का संकल्प करें
- इसके बाद पूजा की चौकी पर भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर रखें। प्रभु का अभिषेक करें। फूल, अक्षत, चंदन, तुलसी दल, पंचामृत, धूप, दीप, फल, गंध, मिठाई आदि श्रीहरि को अर्पित करें।
- अजा एकादशी व्रत करने और भगवान विष्णु की सच्चे मन से प्रार्थना करने से एक अश्वमेघ यज्ञ के बराबर पुण्य प्राप्त होता है।
- मान्यता है कि इस व्रत को करने से समस्त पापों का नाश होता हैं और आत्मा मृत्यु के बाद बैकुंठ धाम को प्रस्थान करती है।
- व्रती ईर्ष्या, दुर्भावना, घृणा, छल-प्रपंच आदि दुष्कर्मों और दुर्व्यसनों से इस दिन ही नहीं वरन् सदैव दूर रहे तो श्री हरि सदैव अपनी कृपा बरसाते हैं।
- संभव हो तो, विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ अवश्य करें। जो भक्त विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ एकादशी के दिन करता है, उस पर भगवान विष्णु की विशेष कृपा होती है।
एकादशी व्रती के लिए अनुकरणीय बातेंः
- अजा एकादशी से एक दिन पूर्व यानि दशमी के दिन शाम को सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करें। रात्रि में भगवान का ध्यान कर सोएं।
- व्रती एकादशी के दिन अनाज (विशेष चावल) का सेवन न करें।
- व्रत से एक दिन पूर्व मसूर की दाल और मांस-मदिरा सेवन ना करें।
- इस दिन चना, पत्तेदार साग-सब्जी, मधु आदि का सेवन नहीं करना चाहिए।
- एकादशी के पूजन में मानसिक, कार्मिक और वचन में शुद्धता व्रत को सफल और फलदायी बनाती है।
जय श्री कृष्णा
जय हिन्द