उन दिनों त्रिलोक पर अधिकार करने के लिये देवताओं और असुरों के बीच संग्राम होते थे । देवताओं के पथ प्रदर्शक गुरु वृहस्पति थे और असुरों के गुरु शुक्राचार्य थे। गुरु वृहस्पति और गुरु शुक्राचार्य में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की आपस में बड़ी होड़ लगी रहती थी।
देवासुर संग्राम में असुर देवताओं पर भारी पड़ने लगे। युद्ध में देवताओं ने असुरों को मारते, तब शुक्राचार्य उन्हें अपनी संजीवनी विद्या के बल से जीवित कर देते। परन्तु असुरों ने जिन देवताओं को मारा था, उन्हें वृहस्पति जीवित न कर पाते थे। शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या ज्ञान था, परंतु गुरु वृहस्पति को संजीवनी विद्या का ज्ञान नहीं था। इससे देवता गण बहुत परेशान थे। असुरों की शक्ति बढ़ती जा रही थी, उसकी मुख्य कारण असुरों के गुरु शुक्राचार्य और उनकी संजीवनी विद्या थी।
देवताओं ने कच से आग्रह किया की वो शुक्राचार्य के पास जाकर संजीवनी विद्या सीखे और देवगणों का कल्याण करे। कच देवताओं के गुरू बृहस्पति के पुत्र थे। कच उनके आग्रह को मान गए। देवताओं ने कच को शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या सीखने के लिए भेजा था।
कच गुरु शुक्राचार्य के पास गए, अपना परिचय दिया।। कच ने शुक्राचार्य से अनुनय किया कि गुरु देव मैं आपके शरण में ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से आया हूँ। कृपया मुझे अपना शिष्य स्वीकार करें। शुक्राचार्य ने एक हजार वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालन करने के शर्त रखी। कच ने हर्षपूर्वक एक हजार वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन कर गुरु के सानिध्य पाने की शर्त स्वीकारा। शुक्राचार्य ने कच का स्वागत किया, मैं तुम्हें शिष्य स्वीकार करता हूँ। कच ने शुक्राचार्य के आज्ञानुसार ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। कच अपने गुरुदेव और गुरुपुत्री देवयानी की लगन से सेवा कर शिष्य धर्म निभाने लगा।
देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री, वह बहुत सुंदर कन्या थी। देवयानी शुक्राचार्य को प्राणों से भी प्रिय थी। देवयानी को पिता के शिष्य कच से प्रेम हो गया। किन्तु कच इस बात से अनभिज्ञ गुरु सेवा मे लगा रहता।
पाँच सौ वर्ष बीत जाने पर दानवों को यह बात मालूम हुई कि कच की मंशा क्या है। उन्होंने ईर्ष्या से गौ चराते समय बृहस्पति पुत्र से संजीवनी विद्या की रक्षा के लिये कच को मार डाला और उसके टुकड़े-टुकड़े करके भेड़ियों को खिला दिया। गऊएँ बिना रक्षक के ही अपने स्थान पर लौट आयीं, किन्तु कच नहीं आया। देवयानी ने देखा कि गऊएँ लौट आयीं, पर कच नहीं आया।
उसने अपने पिता से कहा–पिताजी, आपने अग्निहोत्र कर लिया, सूर्यास्त हो गया, गाएँ कच के बिना ही लौट आयीं, जाने कच कहाँ रह गया। निश्चय ही उसे किसी ने मार डाला। देवयानी विलाप करने लगी। बोली, पिताजी, मैं सौगन्ध खाकर सच कहती हूँ कि मैं कच के बिना नहीं जी सकती। शुक्राचार्य ने कहा, पुत्री, विलाप क्यों करती है। मैं अभी उसे जिला देता हूँ। शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या प्रयोग करके कच को पुकारा, आओ बेटा। कच का एक-एक अंग भेड़ियों का शरीर छेद-छेद निकल आया और वह जीवित होकर शुक्राचार्य की सेवा में उपस्थित हुआ। देवयानी के पूछने पर उसने सारा वृतांत कह सुनाया।
इसी प्रकार असुरों ने दूसरी बार भी कच को छल से मार दिया। शुक्राचार्य ने कच को पुनः जिला दिया।
तीसरी बार असुरों ने नयी युक्ति की। उन्होंने कच को कपट कर आग से जलाया और उसके शरीर का राख मदिरा में मिलाकर शुक्राचार्य को पिला दी।
देवयानी ने पिता से पूछा, पिताजी, फूल लेने के लिये कच गया था, लौटा नहीं। कहीं वह फिर से तो नहीं मर गया। मैं उसके बिना जी नहीं सकती। मैं यह बात सौगन्ध खाकर कहती हूँ। शुक्राचार्य ने कहा, बेटी, मैं क्या करूँ। असुर उसे बार-बार मार डालते हैं। देवयानी के हठ करने पर उन्होंने फिर संजीवनी विद्या प्रयोग किया और कच को बुलाया। कच ने भयभीत होकर उनके पेट के भीतर से धीरे-धीरे अपनी स्थिति बतायी। गुरुदेव मैं आपके पेट में हूँ। शुक्राचार्य ने कहा, बेटा, तुम सिद्ध हो। देवयानी तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न है। यदि तुम इन्द्र नहीं हो तो लो तुम्हे मैं संजीवनी विद्या बतलाता हूँ। तुम इन्द्र नहीं ब्राह्मण हो, तभी तो मेरे पेट में अबतक जी रहे हो। लो यह मेरा विद्या और मेरा पेट फाड़कर निकल आओ। तुम मेरे पेट में रह चुके हो, इसलिये सुयोग्य पुत्र के समान मुझे फिर जीवित कर देना। कच ने वैसा ही किया और प्रणाम करके कहा, जिसने मेरे कानों में संजीवनी विद्यारूप अमृत की धारा डाली है, वही मेरा माता-पिता है। मैं आपका कृतज्ञ हूँ। मैं आपके साथ कभी कृतध्नता नहीं कर सकता।
शुक्राचार्यजी को यह जानकर बड़ा क्रोध हुआ कि धोखे में शराब पीने के कारण मेरे विवेक का नाश हो गया और मैं ब्राह्मणकुमार कच को ही पी गया।
शुक्राचार्य को स्वयं पर और असुरों पर क्रोध आया। उन्होंने उस समय यह घोषणा की कि आज से यदि जगत् का कोई भी ब्राह्मण शराब पीयेगा तो उसका धर्म भ्रष्ट हो जायेगा। इस लोक में तो वह कलंकित होगा ही, उसका परलोक भी बिगड़ जायेगा।
कच संजीवनी विद्या प्राप्त करके सहस्त्र वर्ष पूरे होने तक उन्हीं के पास रहा। समय पूरा होने पर शुक्राचार्य ने उसे स्वर्ग जाने की आज्ञा दे दी।
जब कच वहाँ से देवलोक जाने लगा तब देवयानी ने कहा, ऋषिकुमार, तुम सदाचारी, ज्ञानी, कुलीन, तपस्वी और जितेन्द्रीय हो। मैं तुम्हारे पिता को अपने पिता के समान ही मानती हूँ। अब तुम स्नातक हो चुके हो। देवयानी ने कहा, ‘महर्षि अंगिरा के पौत्र, मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, तुम मुझे स्वीकार करो और वैदिक मंत्रों द्वारा विधिवत् मेरा पाणिग्रहण करो।’
कच ने कहा—बहिन, गुरु शुक्राचार्य जैसे तुम्हारे पिता हैं वैसे ही मेरे भी। आप मेरे लिये पूजनीया हो। जिस गुरुदेव के शरीर में तुम निवास कर चुकी हो, उसी में मैं भी रह चुका हूँ। आप धर्मानुसार मेरी बहिन हो। मैं तुम्हारे स्नेहपूर्ण वात्सल्य की छत्रछाया में बड़े स्नेह से रहा। मुझे घर लौट जाने की अनुमति और आशीर्वाद दो।
देवयानी ने कहा, ‘’द्विजोत्तम कच! तुम मेरे पिता के शिष्य हो, मेरे भाई नही। मैने तुमसे प्रेम की भिक्षा माँगी है। दैत्यों द्वारा बार-बार मारे जाने पर मैंने तुम्हें पति मानकर ही तुम्हारी रक्षा की है अर्थात् पिता द्वारा जीवनदान दिलाया है। यदि तुम धर्म और काम की सिद्धि के लिये मुझे अस्वीकार कर दोगे तो तुम्हारी संजीवनी विद्या सिद्ध नहीं होगी।‘
कच ने कहा—बहिन, मैने गुरुपुत्री समझकर ही आप के प्रस्ताव को अस्वीकार किया है, कोई दोष देखकर नहीं। आप मुझे ऐसे कार्य को प्रेरित कर रही हैं जो मेरे लिए कदापि संभव नहीं है। आपकी जो इच्छा हो, शाप दे दो। मैने आपसे धर्मानुसार बात कही थी। मैं शाप योग्य नहीं था। तुमने मुझे धर्म के अनुसार नहीं, काम के वश होकर शाप दिया है। जाओ तुम्हारी कामना कभी पूरी नहीं होगी। कोई भी ब्राह्मणकुमार तुम्हारा पाणिग्रहण नहीं करेगा। मेरी विद्या सिद्ध नहीं होगी, इससे क्या, मैं जिसे सिखाऊँगा, उसकी विद्या सफल होगी। ऐसा कहकर कच स्वर्ग में गया।